“पिरूल” एक समस्या नहीं, समाधान है

हिमालय क्षेत्र में चीड़ वृक्षों की भरमार है, इसकी पत्तियां लम्बी, पतली और नुकीली होती हैं जिसे उत्तराखंड में “पिरूल ” कहते हैं और अंग्रेजी में पिरूल को “पाइन नीडल्स” के नाम से जाना जाता है। पतझड़ में ये पिरूल जमीन पर कालीन की तरह बिछ जाती हैं और सूखने पर फिसलन पैदा करती हैं। इसलिए ग्रामीण लोग , बरसात आने से पहले इसको खेतों में जला देते हैं जिससे जून माह में पर्वतीय क्षेत्रों में अक्सर पहाड़ों में आग के नज़ारे दिखते हैं और आसमान में धुंध छाई रहती है। सरकार और जनमानस के लिए ये एक बड़ी समस्या है। आज के तकनिकी समय में ऐसी कोई समस्या नहीं जिसका समाधान न हो। सर्वप्रथम आई. आई. टी. रूड़की ने इस पर शोध कर पिरूल से कोयला बनाने की तकनीक विकसित की थी। तत्पश्चात इससे बिजली उत्पादन की योजना भी बनी जिसमें अवसर देख उत्तराखंड सरकार ने ये दायित्व अपने ही सरकारी संस्थान उरेडा को दिया जो प्राइवेट में लोगों को पिरूल से बिजली उत्पादन के लिए सहायता करती है। २५ केवी संयंत्र लगाने का खर्च २५ लाख रूपये एवं १० केवी संयंत्र के लिए लगभग ८ लाख रूपये की लागत ” उरेडा ” २०२१ में बताई थी। पूरे प्रदेश में कितने संयंत्र लगे यह जानकारी नहीं है पर बेरीनाग तहसील में “अवनि ” नामक एक संस्था १० केवी संयंत्र से बिजली उत्पादन कर सरकार को बिजली सफलता पूर्वक बेच रही है।

पिरूल के अन्य उपयोग में इससे कोयला और टोकरियाँ आदि बनाने का प्रयास लोग अपने संसाधनों से कर रहे हैं।

हमारी संसथान भी इस पिरूल जलाने की समस्या को बिजली उत्पादन समाधान के लिए जागरूक है। इसे जन-धन के सहयोग से चलाया जाएगा। जनता का सहयोग वांछनीय है।